“बहुत पुरानी बात है, मैं गुरुजी के साथ सहारनपुर प्रचार में था। एक दिन गुरु महाराज जी अचानक मेरे कमरे में आये और कहने लगे कि तुम यहाँ बैठे-बैठे क्या करते हो ? वृन्दावन में ज़मीन ली है। वहाँ कुछ बनाना नहीं होगा ?
क्या करना होगा मुझे – मैंने पूछा ? – बाहर जाओ, थोड़ी-बहुत सेवा इकट्ठी करो वहाँ के लिये। सुना है यहाँ एक सेठानी रहती है, बहुत दान करती है, उससे मिलो – गुरुजी ने कहा।
मैं तो घूमने वाला नहीं था, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि कौन कहाँ रहता है। वह सेठानी जिसकी बात गुरु महाराज जी ने की, वह कौन है कहाँ रहती है – तभी मुझे याद आया कि हमारे साथ में जो विजय कृष्ण प्रभु हैं, उन्हें बहुत शौक है घूमने का, उन्हें ज़रूर कुछ ना कुछ पता लग गया होगा इस शहर के बारे में।
मैं विजय कृष्ण प्रभु के पास गया और मैंने उनको गुरुजी द्वारा कही गई सारी बात बताई और पूछा कि क्या तुम उस महिला को जानते हो जिसके बारे में गुरुजी ने बात की थी ?
हाँ-हाँ, क्यों नहीं, मैं उसका घर भी जानता हूँ – विजय कृष्ण प्रभु ने कहा
तो आप मुझे वहाँ तक ले जा सकते हो – मैंने कहा।
हाँ अभी चलो – विजय कृष्ण प्रभु ने बड़े उत्साह के साथ कहा।
हम दोनों ने वहाँ पहुँच कर अपना कार्ड अन्दर भिजवाया। थोड़ी देर बाद एक मोटी सी माता जी बाहर आयीं, उन्होनें हमको अन्दर चलकर बैठने को कहा। जब हम बैठ गये तो मैंने बात शुरू की। मैंने कहा, माता जी! हम अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से आये हैं। हम सारे भारत में घूम-घूम कर श्रीचैतन्य महाप्रभु की शुद्ध-भक्ति की शिक्षा का प्रचार करते हैं। ऐसे कहते-कहते मैंने श्रीचैतन्य महाप्रभु कौन हैं व उनके क्या विचार हैं उन्हें बताना शुरू किया;अचिन्त्यभेदाभेद तत्व की बात भी मैंने उन्हें बतायी।
लगभग एक घण्टे तक वह मेरी बात बड़े ध्यान से सुनती रही व बीच-बीच में सिर भी हिलाती रही।
मेरी सारी बात सुनने के बाद वह कहती हैं – आपकी सब बात ठीक है परन्तु आपका ये दूजा भाव ठीक नहीं है – ये सब तो झूठ है – हम सब ब्रह्म हैं – ‘अहं ब्रह्मास्मि ‘ – ‘सोअहम’।
मैं जितना भी उसे भगवान् और जीव के नित्य सम्बन्ध के बारे में बताता, वह सुनती और मुस्कराकर कहती – ये सब तो झूठ है, दूजा भाव बाद में नहीं होगा।
मैंने उसे बड़ी अच्छी तरह से समझाया कि भगवान् नित्य हैं, उनकी शक्ति का अंश जीव भी नित्य है तथा भगवान् का जीव से जो सम्बन्ध है, वह भी नित्य है।
वह कहती – हाँ-हाँ, शुरू में ऐसा ही माना जाता है। परन्तु ये संसार – ये जीव – ये सब झूठ हैं। मैं जितना ही उसे समझाता तो जवाब में बस वह यही कहती कि सब ब्रह्म हैं, दूजा भाव अच्छा नहीं। ये जो संसार है, ये जो जीव हैं,सब झूठ हैं।
बार-बार समझाने पर भी जब वह नहीं समझीं तब मैंने कहा – जब सारा संसार झूठा है तो क्या आप संसार से बाहर हैं ? आप भी तो संसार के अन्दर ही हैं और ये संसार झूठा है, तो आप भी झूठी हैं, आपकी बात भी झूठी है – और झूठी बात सुनने की हमको कोई ज़रूरत नहीं; हृदय में ऐसा भाव होने से कभी भी भक्ति नहीं हो सकेगी – इतना कहकर मैं उसके कमरे से बाहर आ गया। मेरे पीछे-पीछे विजय कृष्ण प्रभु भी आ गये। “