श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी के नित्य पार्षद – षड् गोस्वामियों में से एक हैं श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी। आपका जन्म गौड़देश के सप्तग्राम में एक बहुत बड़े धनी जमींदार के यहाँ हुआ। इन्होंने वैराग्य की चरम पराकाष्ठा का प्रदर्शन करते हुए इन्होंने इन्द्र के समान वैभव और अप्सरा के समान स्त्री का परित्याग करके श्रीमन् चैतन्य महाप्रभु जी के चरणकमलों की शरण ली थी।
श्रीरघुनाथ दास जी बचपन में जब पढ़ते थे तब ही उन्होंने हरिदास ठाकुर जी के दर्शन किये थे और नामाचार्य श्रीहरिदास जी ने उन पर कृपा की थी। उसी कृपा के प्रभाव से उनको श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की सेवा प्राप्ति हुई थी। श्रील रघुनाथदास गोस्वामी जी ने सोलह वर्ष तक पुरी में रहकर तीव्र वैराग्य के साथ भजन करते हुए श्रीस्वरूप दामोदर जी के आनुगत्य में रह कर श्रीमन् महाप्रभु जी की अन्तरंग सेवा की थी।
श्रील रघुनाथदास गोस्वामी जी, श्रीस्वरूप दामोदर जी और श्रीगोविन्द जी के माध्यम से ही अपनी कहने योग्य बात, श्रीमन् महाप्रभु जी को बताते थे। एक दिन श्रीरघुनाथदास जी ने अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में श्रीमन् महाप्रभु जी के श्रीमुख से उपदेश सुनने के लिए, श्रीस्वरूप दामोदर जी से प्रार्थना की। श्रीस्वरूप दामोदर ने वह बात श्रीमन् महाप्रभु जी को बताई, जिस पर महाप्रभु जी श्रीरघुनाथ जी से बोले कि वे स्वयं जो कुछ जानते हैं, उससे अधिक तो श्रीस्वरूप दामोदर जी जानते हैं। इसलिये साध्य और साधन तत्व के सम्बन्ध में तुम्हें जो कुछ जानना हो, श्रीस्वरूप दामोदर जी से सुनो। श्रीरघुनाथ दास जी का श्रीमन् महाप्रभु जी से ही उपदेश सुनने का आग्रह देखकर बाद में श्रीमन् महाप्रभु जी उनसे बोले कि अगर मेरे वाक्य में ही तुम्हारी श्रद्धा है तो यह उपदेश ग्रहण करो –-
ग्राम्य कथा ना शुनिवे, ग्राम्यवार्ता न कहिवे।
भालो ना खाइवे आर भालो न परिवे।।
अमानी मानद हया कृष्णनाम सदा लवे।
ब्रजे राधा कृष्ण सेवा मानसे करिवे।।
अर्थात् स्त्री-पुरुष से सम्बन्धित अश्लील बातों को न तो सुनना और न ही बोलना तथा न अच्छा-अच्छा खाना और न अच्छा-अच्छा पहनना। स्वयं अमानी होकर सदा कृष्णनाम करना और व्रज में श्रीराधा कृष्ण जी की मानसिक सेवा करना।