Facebook Twitter Youtube Blog

विष्णु-वैष्णव सेवा ही परम धन है

 

‘ध्रुवानन्द’ नामक एक उदासीन वैष्णव एक बार पुरुषोत्तम क्षेत्र में गए थे। वहाँ पहुँच कर उन्हें श्रीजगन्नाथ देव को अपने हाथ से बनाकर भोग लगाने की प्रबल इच्छा हुई। श्रीजगन्नाथ देव ने स्वप्न में उनको गंगा किनारे “माहेश” नामक स्थान पर जाकर उनकी (श्रीजगन्नाथ की) प्रतिष्ठा कर अपने हाथ से रसोई करके भोग लगाने का निर्देश दिया। ध्रुवानन्द जी ने माहेश जाकर देखा कि श्रीजगन्नाथ, श्रीबलदेव और श्रीसुभद्रा जी जल में तैर रहे हैं। वे गंगाजल से उन्हें निकाल कर गंगा के किनारे एक कुटिया बना कर उनकी सेवा करने लग पड़े।

 

इनके अप्रकट हो जाने के बाद कौन व्यक्ति श्रीजगन्नाथ जी की सेवा सुचारू रूप से करेंगे – इस विषय में चिंतामग्न होने पर जगन्नाथ जी ने उनको स्वप्न में दर्शन देकर कहा – “कमलाकर पिप्पलाई नामक हमारे एक भक्त वैष्णव हैं। वे तुम्हारे पास आवेंगे। तुम उन्हें यह सेवा समर्पित कर देना।”

 

उधर निकट ही सुन्दरवन के खालिजुलि ग्राम में निवास कर रहे श्रीकमलाकर पिप्पलाई जी ने भी स्वप्न में जगन्नाथ जी का निर्देश प्राप्त किया। आप श्रीजगन्नाथ देव के आदेश को प्राप्त करने के साथ-साथ ही उसी समय पारिवारिक जनों का त्याग करके माहेश की ओर चल दिये। ध्रुवानन्द जी ने उनको श्रीजगन्नाथ, श्रीबलदेव, श्रीसुभद्रा जी की सेवा प्रदान कर दी। इस प्रकार आप श्रीजगन्नाथ जी की सेवा के अधिकार को प्राप्त कर अपने को कृतकृतार्थ समझने लगे।

 

भक्त भगवान की सेवा के लिए सदा उत्कंठित व व्याकुल रहते हैं, इसीलिये भगवान् भी भक्त को ही सेवा के लिए निर्देश देते हैं, अभक्त को नहीं देते। स्थूल-सूक्ष्म इन्द्रिय तर्पण में रूचि रखने वाले कामातुर बद्धजीव विष्णु और वैष्णवों की सेवा के नाम से ही डर जाते हैं। सदा उसको बोझ समझते हैं। वे नाना उपायों से सेवा से अलग रहने की चेष्टा करते हैं। वे विष्णु-वैष्णव की सेवा प्राप्ति को भी एक प्रकार का धन नहीं समझते। विषयी लोग जैसे धन का मतलब विषय भोग को ही समझते हैं तथा उसे ही सुख व लाभ समझते हैं, उसी प्रकार भक्त लोग विष्णु-वैष्णवों की सेवा प्राप्ति को ही परम धन बताते हैं। दुनियाँ की नजरों में भक्त गृहस्थ आश्रम में रहने की लीला करने पर भी, वे साधारण विषयी गृहस्थों की भांति नहीं होते। भगवत् इच्छानुसार गृहस्थाश्रम में रहने पर भी भक्तों के चित्त हमेशा भगवत्-विरह की तन्मयता को प्राप्त किये रहते हैं। भगवान् का निर्देश प्राप्त होते ही वे परमोल्लास के साथ सांसारिक सम्बन्धों को परित्याग करके भगवत् सेवा में लग सकते हैं। इस प्रकार के भक्तों के द्वारा संसार का त्याग ज्ञानियों व योगियों की भान्ति कष्टदायक नहीं होता, यह तो स्वाभाविक और स्वतः स्फूर्त होता है।

 
श्रीश्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी द्वारा रचित ‘गौर-पार्षदावली’ के अतर्गत श्रीकमलाकर पिप्पलाई जी के चरित्र से उद्धरित

Hindi Section

Chaitanya Sandesh Magazine

Gaudiya History

Upcoming Events

Thursday, September 22, 2022 Paran by 9:29 am.
Wednesday, September 21, 2022

No Video Conference Scheduled at the Moment!

Back to Top