श्रेष्ठतम साधन
मनुष्य जीवन ही एक ऐसा अनमोल जीवन है जिसमें भगवद् भक्ति करने का सर्वोत्तम सुयोग हैI मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे सद्-असद् का बोध है व जो सद् वस्तु भगवान की आराधना करके सब कुछ, यहाँ तक कि पूर्णतम्-वस्तु श्रीकृष्ण को भी प्राप्त कर सकता हैI
श्रीमद् भागवत् में चित्त को ही जीव के बन्धन का व मुक्ति का कारण बतलाया गया है I इस चित्त में ही श्री कृष्ण को अधिष्ठित करना होगा। यदि कोई पूछे कि ये कैसे सम्भव होगा तो इसका जवाब यही है कि देखो सारी ज़िन्दगी हमने सांसारिक विषयों की बातें सुनी-कही व चिन्तन की, इसलिए हमारे चित्त में सारे सांसारिक विषय आ गये हैं । अतः अब शुद्ध-भक्तों के मुख से भगवान की कथा सुनो, जो सुना, उसे दूसरों के आगे कहो व चिन्तन करो। बस, ऐसा करने से भगवान तुम्हारे चित्त में अधिष्ठित हो जायेंगे। कारण, जिस विषय में हम बोलते रहते हैं या सुनते रहते है, वही विषय हमारे चित्त में बैठ जाता है। जैसे आप किसी कुत्ते या बिल्ली अथवा किसी व्यक्ति के बारे में ही सुनते रहो या बोलते रहो तो आप देखोगे की कुछ समय पश्चात वही कुत्ता, बिल्ली या व्यक्ति आपके चित् में अधिष्ठित हो जायेगा। इसी प्रकार यदि किसी को अपने दिल में भगवान को धारण करने की इच्छा है, भगवान को प्राप्त करने की इच्छा है तो उसे चाहिए कि वह भगवान के बारे में ही सुने, जब भी किसी से मिले भगवान के बारे में ही कहे तथा भगवान के बारे में ही चिन्तन करे – ऐसा करने से तुम्हारा दिल भगवान में चला जायेगा। अतः भगवान के नाम, रूप, लीला व परिकर की कथा का श्रवण कीर्तन व स्मरण – ये तीनों भक्ति अंग ही, भगवद् -प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ साधन हैं। वैसे तो शास्त्रों में भक्ति के हजारों अंग बताये हैं, परन्तु उन हजारों सधानांगों में से भगवान को अपने चित्त में बैठाने के लिए उनकी कथा का श्रवण, कीर्तन व स्मरण – ये तीनों साधन ही मुख्य हैं। यही कारण है कि हमारे सभी मठों में इन तीनों अंगों के पालन करने की विशेष व्यवस्था है।