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जब भगवान् जगन्नाथ जी ने स्वयं युद्ध क्षेत्र में आकर अपने भक्त की प्रतिज्ञा-रक्षा की।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्रीमन् महाप्रभु की लीला काल से पूर्व उड़ीसा राज्य के गजपति राजवंश में श्रीपुरुषोत्तम देव नामक एक राजा थे जोकि भगवान श्री जगन्नाथ देव के अनन्य-शरण भक्त थे।

 

जब श्रीपुरुषोत्तम के साथ कांची नगर की राजकुमारी पद्मावती का विवाह निश्चित हुआ तो कांची के राजा वर को मिलने के लिए पुरी आये। जब कांची के राजा पुरी में पहुँचे तो उस समय रथयात्रा का समय था और राजा पुरुषोत्तम देव सोने के झाड़ू से रथ का रास्ता साफ कर रहे थे। ऐसा देख कांचीराज ने यह सोचकर कि एक झाडूदार चांडाल के साथ वह अपनी कन्या का विवाह नहीं करेंगे, उन्होंने विवाह करना अस्वीकार कर दिया। कांची राजा गणेश जी का भक्त था। उसकी जैसी श्रद्धा गणेश जी में थी, वैसी जगन्नाथ जी में नहीं थी। श्रीपुरुषोत्तम देव को जब अश्रद्धा की बात मालूम हुई तो वे क्षुब्ध ही उठे और एक बड़ी सेना के साथ उन्होंने कांचीराज पर आक्रमण कर दिया किन्तु पहली बार सफलता उनके हाथ न लग पायी, अतः वे हताश होकर जगन्नाथ जी के शरणापन्न हुये। जगन्नाथ जी के द्वारा ये आश्वासन देने पर कि वे युद्ध में उसकी सहायता करेंगे, उसने पुनः कांचीराज पर आक्रमण कर दिया। पुरी से 12 मील दूर आनन्दपुर नामक गाँव में एक ग्वालिन राजा को देखकर बोली कि “दो अश्वरोही सैनिकों ने उसके पास से दूध-दही और लस्सी पी है और उसके मूल्य के बदले उन्होंने एक अंगूठी दी है और ये अंगूठी आप को देकर आप से मूल्य लेने की बात बोल गये हैं।” अंगूठी देखकर पुरुषोत्तम देव को समझने में देर नहीं लगी कि ये दोनों सैनिक श्रीजगन्नाथ और श्रीबलराम जी को छोड़ कोई दूसरा नहीं था। राजा ने ग्वालिन को पुरस्कार दिया। राजा ने युद्ध में जय प्राप्त कर कांचीराज के मणियों से बने सिंहासन को हरण कर लिया और उसे श्रीजगन्नाथ जी की सेवा में समर्पण कर दिया। वे कांची राजकुल के पूजित ‘गणेश’ जी को भी पुरी में ले आये। दर्पहारी मधुसूदन ने कांचीराज के दर्प को चूर्ण कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि नाना प्रकार से पुरुषोत्तम देव के युद्ध में विध्न उत्पादन करने के कारण ‘गणेश’ जी ‘भण्डगणेश’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। कांचीराज अपनी कन्या पद्मावती को स्वयं पुरी लाये एवं रथयात्रा के समय स्वर्ण के झाड़ू से स्वयं रथ का रास्ता साफ करते हुए उन्होंने अपनी कन्या पुरुषोत्तम देव के हाथों में समर्पण कर दी। इससे पुरुषोत्तम देव की प्रतिज्ञा की रक्षा हुयी। पुरुषोत्तम देव जी ने सन् 1497 तक राज्य किया। उसके पश्चात् इनके सुपुत्र राजा प्रतापरुद्र ने राज्य पर अभिषिक्त होकर सन् 1540 तक राज्य किया। महाराज प्रतापरुद्र जी श्रीराधाकृष्णमिलित तनु स्वयं भगवान् श्रीगौरसुन्दर जी के कृपा भाजन थे एवं ये महाप्रभु जी के पार्षद के रूप में गिने जाते हैं।

 

–श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी द्वारा रचित ‘श्री गौर पार्षदवाली’ के अंतर्गत महाराज श्रीप्रतापरुद्र देव जी के चरित्र से उद्धरित

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